जलते-पहाड़ / गायत्री सर्राफ

गायत्री सराफ (1952)
जन्म-स्थान :- बलांगीर
प्रकाशित-गल्पग्रंथ-“आलोकित अंधार “,1988,”आईनार जन्ह”,1995, “निजस्व बसंत”,1996,’प्रेमिक परि केही जणे”,1998, “बापा भल अछन्ती”, 2003


उस रात को भी सरोजिनी बहुत समय तक कहानी लिख रही थी। कहानी के क्लाईमैक्स के बारे में वह सोच रही थी। कुछ शब्द लिख रही थी, कुछ शब्द काट रही थी। अचानक उसे लगने लगा कि हवा के साथ कोई उसकी कोठरी में घुस आया है। वह थोडी सहम गई। कहानी की दुनिया से बाहर निकल कर कोठरी के भीतर नजर घुमाने लगी। उसे एक औरत की छाया नजर आने लगी। अंधेरे में उडकर वह छाया उसके पास खडी हो गई और तेज स्वर में कहने लगी, “तुम कहानियां लिखती हो.हैं न ? किंतु कौन-सी कहानियां? कभी लिखी है मुझ जैसी नारी की कहानी? नारी शब्द कहने से तुम्हें केवल शिक्षित और शहरी औरतें ही नजर आती है। झोपड़ी में शरीर को छिपाने वाली साड़ी के अंदर तिल- तिलकर मरकर बचने वाली और फिर मर जाने वाली - क्या हम सभी औरतें नहीं हैं? हमारे लिए वह कितना कीमती शब्द। तुम्हें समझाने के लिए कह रही हूँ। तुमने हमारे जैसे लोगों को कभी देखा है? गांवों में आकर कभी मह्सूस किया है हमारी दिनचर्या को? दुर्दशा को? कभी दूसरे लोगों को हमारी भूख-प्यास की कहानी भी कही है ? ”
उसकी तेज आवाज - दुख से भीगे शब्दों के तीर ने सरोजिनी के हृदय को छलनी-छलनी कर दिया। वह आहत हो गई। उसकी तरफ सीधा देख नहीं सकी। लिखने वाले कागज को देखने लगी- कलम पर केप लगाकर वह पूछने लगी, “तुम कौन हो? क्या कहना चाहती हो? ”
वह थोड़े तेज स्वर में कहने लगी," मै मेरी कहानी तुम्हें सुनाना चाहती हूँ। और मैं जानती हूँ तुम मेरी बात नहीं टालोगी। सुनाती हूँ। कहानी लिखने के अलावा मेरे जीवन को पढ़। अपने शरीर में मेरी दुर्दशा का अनुभव कर। मैं कहूंगी मेरी भाषा में। तुम कहोगी उस भाषा और भाव में जिसे तुम्हारा समाज समझ सकेगा - जिनके पास प्रचुर मात्रा में खाने का सामान, पानी, प्रकाश और अनेक तरह-तरह की वस्तुएं हैं।
छाया के स्वर को सरोजिनी ने अपनी भाषा और शैली में सुना पूरी तरह भावुक होकर।
“ क्या है मेरे पास जो मैं अपना परिचय दूँ ? हमारा परिचय क्या होता है? हाँ, एक नाम ही है? ”
मेरा नाम- उकिया, उकिया बर्मे। उकिया का अर्थ होता है प्रकाश। परंतु मेरे जीवन में प्रकाश की एक किरण भी नहीं थी। अंधेरे से शुरू हुआ और अंधेरे में खत्म। फिर भी मैं चुप थी। मैं अपना दुख किसके सामने बताती? किस पर आरोप लगाती? मेरी कहानी, मेरे जैसे आम लोगों की कहानी कौन समझेगा ? मिल जाती है, गांव की धूल में धूल बनकर। मगर आज ईर्ष्या में जलकर मेरा मुहं खोलने की इच्छा हो रही है। मैं ईर्ष्या में जल रही हूँ। तुम्हारे फूल और चाँद जैसे उज्ज्वल भविष्य को लेकर नहीं। मेरे जैसे एक दुखियारी, उसके भाग्य को लेकर। वह प्रेमशीला थी, भूख-प्यास से बिलख-बिलखकर मर गई। जिसको मृत्यु ने भाग्यशाली बना दिया। जिसके लिए कुछ दिनों तक सनसनी फ़ैल गई। उसे मरे हुए कुछ ही दिन हुए हैं। तुम सभी उसे पहचान गए। उसके और उसके बच्चों का फोटो देखा। मगर क्या तुम मुझे जानती हो? देखा है मुझे या मेरी बेटी को कभी अखबार के पन्नो में? मेरे लिए कैमरा नहीं था। अखबार नहीं था, मेरी कहानी सुनने के लिए कोई अखबारनवीश नहीं आया था- इसलिए तुम ही कहो प्रेमशीला के भाग्य को लेकर मुझे ईर्ष्या नहीं होगी? प्रेमशीला के गाँव के पास तो मेरा भी गांव था। गांव कहने से जैसे तुम समझती हो वैसे गाँव नहीं। जंगलों से भरा गांव था हमारा। हरे-भरे जंगल, नीले पहाड़, झर-झर करते झरने कुछ भी तो हमारा नहीं था। हाँ, कुछ दिनों तक पेड -पौधों, फूल-फलों से लदे जंगल थे। उसमें थे केंदू, महूली, बेर और फूलों के जंगल। उनकी मधुर खुशबू। भूख होने से जंगल में हम खाने के लिए जाते थे। भरपेट खाते थे। सिर पर बड़ी-बड़ी लकडियों की गठरी लादकर आते थे। जंगल था हमारी मां, हमारी भूख मिटाने के लिए उसने भंडारे खोल रखे थे। छाया देते थे। हवा देकर पसीना पोंछते थे। खेतों के लिए झर-झर वर्षा करते थे। किंतु कौन जानता है किसने हमारे सारे पेड़ों को काट लिया। उसकी चोट सब जगह पड़ी, हमारी छाती, पेट और पीठ पर। हम जैसे मातृविहीन हो गए। पेड़-पौधों की खुशबू, महूली और केंदू की महक सारे गांव से खत्म हो गई। धीरे-धीरे गांव में बारिश होनी बंद हो गई। मिट्टी सूखने लगी। हमारे खेतों के धान खत्म होने लगे। पैसे वाले लोगों को कुछ भी फर्क नहीं पड़ा। उन्होंने बैंकों से लोन लिया। कुएँ खोदे। पंप लगाए। वे बच गए। उनके खेत और अनाज बच गए। हम आकाश की तरफ देखने लगे तो कभी सूखी मिट्टी की तरफ, कभी जलते हुए पहाड़ों की तरफ। खेत पड़े रह गए। धूल उड़ने लगी लहलहाते खेतों की जगह क्या करते हम? क्या खाते? कैसे जान बचाते? नहीं- नहीं करते मेरा आदमी समारू एक साहूकार के घर में मजदूरी का काम करने लगा, मगर साहूकार बहुत कंजूस आदमी था। काम ज्यादा करवाता था, पैसे कम देता था। उन पैसं से हम दोनों तथा बेटी का पेट नहीं भरता था। बांटकर आधा-आधा खाते थे। उसके बाद आधे का भी आधा। किंतु गांव में हमारे लिए कौन-सा काम था जो एक काम पसंद नहीं आने पर उसे छोड़कर कोई दूसरा काम करते अधिक पैसा पाते और सब दिन भरपेट खाना खाते? यह केवल हमारे घर का दुख नहीं था। यह दुख बहुत लोगों का था। अनेक समारू, अनेक- अनेक उकियों के पेटों का दुख। एक दिन साहूकार ने कहा, “समारू ! तुम अपना रास्ता देखो। मेरा व्यापार घट गया है और मुझे किसी नौकर की जरूरत नहीं है।”
समारू असहाय होकर मेरे पास लौट आया। मैं केवल उसे ढांढस बंधाती रही। उसने मुझसे पीने के लिए पानी मांगा। मैने कहा, “गांव के किसी हैंडपंप में और पानी नहीं आ रहा है।” कहते-कहते मेरी आंखें आंसूओं से भर आई। वह धरती मां को कोसने लगा। कोसने लगा आकाश को, भूख को, प्यास को और अपने भाग्य को। एक मुट्ठी चावल और एक लोटा पानी भी हमारे लिए किसी सपने से कम नहीं था। एक दिन हम यह सपना पूरा करने के लिए भूखे-प्यासे सरपंच के घर पहुंचे। एक प्रकार की खुशबू महक थी उधर - उस घर की हवा में। किसी ने कहा, यह चावल की खुशबू है।
किसी ने कहा, ये पैसों की महक है। और किसी ने कहा : यह सरपंच के शरीर की खुशबू है.
हमने कहा, हमारे हाथों में काम दो। खाने के लिए खाना दो....।
इतने सारे लोगों की आवाज सुनकर सरपंच गुस्से से कहने लगा- “जाओ, भागो मेरे घर के सामने से। भिखारियों को केवल दो... दो... तमाशा लगाकर रखे हो? ”
किसी ने कहा, “आपको नहीं कहेंगे तो और किसे कहेंगे? सरकार को तुम देखते हो, जानते हो। हमारी आवाज उन तक पहुंचाओगे।”
“हाँ,..... कहूंगा जाओ.. अभी कहता हूँ।”
हम लौट आए। उसने कहा कि वह किसी को भी नहीं जानता है। सरकार कौन, कितनी दूर है- कितनी ज्यादा भूख होने पर सरकारी चावल मिलते हैं, कितने अधिक बांध सूखने पर नलकूप खोदे जाते हैं, हमें पता नहीं था। मेरे मन में कई सवाल थे. किसको कहने से हमारी बात सुनेगा? क्या मांग रहे थे जो हम? चीनी, गुड़, दाल, सब्जी, आटा या सिर पर लगाने वाला तेल? एक वक़्त खाने के लिए चावल और गला तर करने जितना थोड़ा-सा पानी। मुफ्त में भी नहीं - काम दो - हम मेहनत करेंगे और खाएंगे। सुना था पिछले वर्ष कहीं पर पानी का प्रकोप आया था। घर द्वार धंस गए थे। लोग बाहर में रहे थे भूखे-प्यासे। उनके लिए चारों तरफ रोना-धोना शुरू हुआ था।
हवाई जहाज से खाने के पैकेट फैंके गए थे। कितना कुछ सामान उनके पेट के लिए मिला था। हमारे लिए अकाल पड़ा है - भूख से लोग छटपटा रहे हैं - पहनने के लिए कपड़ा नहीं सही मगर पेट के लिए तो एकाध दाना मिलता। किंतु हमारे लिए किसी का भी मन दुखी नहीं हुआ- हवाई जहाज नहीं उड़े- क्यों? क्यों हमारे लिए हवाई जहाज उड़ेंगे? क्यों कोई हमारी बात सुनेगा?
एक ने सुनी थी।
एक दिन वह आया था। हाथ में था नोटों का एक बंडल। इतने नोट एक साथ हमने कभी देखे नहीं थे। एक आदमी के पास इतने सारे पैसे कहां से और कैसे आते हैं?
नोटों के उस बंडल को देखना हमारे लिए एक विरल और खुशी देने वाली घटना थी।
उसने कहा, “तुम सब यदि चाहोगे- इतने नोट अपने हाथ में रख सकते हो...।”
“हम कौन और नोटों का बंडल कौन - तुमको क्या सरकार ने हमारे लिए भेजा है? ” किसी एक ने पूछा।
“चुप रहो। सरकार का नाम मत लो, मुझे भेजा है मेरे मालिक ने। उन्होंने तुम्हारी भूख की कहानी सुनी है। तुम लोगों पर उन्हें दया आ रही हैं। जो भी आना चाहोगे, आओ। मैं तुम लोगों को आंध्रप्रदेश ले जाऊंगा। र्इंट बनाओगे, पैसा पाओगे। इतना मिलेगा जिससे भात तो क्या बहुत कुछ चीजें खा सकोगे। खरीद सकोगे साड़ी, चूड़ी, ब्लाऊज... आओ, नाम लिखाओ, पैसा ले लो एडवांस....।”
यह बात सुनकर दूसरे लोगों के लिए गांव की सूखी मिट्टी भीग सी गई। मरणासन्न पेड़ों पर कोपलें फूटने लगी। मेरे पति समारू ने मेरी तरफ देखा। हाथ पकड़कर खड़ी मेरी बेटी को मैने गोद में ले लिया। “आंध्र प्रदेश बहुत दूर है। हम वहां नहीं जाएंगे तुम शहर जाओगे। मजदूरी नहीं मिलने से कम से कम र्इंट बनाने का काम तो मिलेगा। सांझ को फिर लौटकर आ सकते हैं... ”
उदास होकर समारू कहने लगा, “टाऊन में र्इंट बनाने का काम नहीं होता है। हर दिन मजदूरी भी नसीब नहीं होती है। अब तो शहर में भी पानी की किल्लत है। जैसे भी हो जान तो बचाना है। पेट की खातिर ही तो इस गांव को छोड़ना पड़ रहा है। यह गांव... यह सरकार हमें ठग रही है- ... गांव का मतलब भूखे, प्यासे रहना, कब तक रहेंगे? तुम्हारे जिस्म की हड्डियां नजर आ रही है - बेटी केवल भात- भात कहती है... मेरी उम्र है मगर ताकत नहीं ... मर जा रहा हूँ।”
मैने समारू को देखा। बेटी को देखा। उसके पेट की भूख देखी। कौन कितने दिन जिंदा रह सकता है बिना खाए? मेरे शरीर की सस्ती साड़ी को देखा। खाली पेट घर से बाहर निकल सकते है मगर खाली शरीर घर से बाहर कैसे निकले? एक कपडे के लिए... पेट के सपने के लिए... यह गांव छोड़ना होगा.. पहले पेट पूजा फिर दूसरी बात, उसके बाद गांव की मिट्टी की बात !
मैने कहा, “जा समारू नाम लिखा। मेरा नाम भी। दोनो जाएंगे। खटेंगे, बचेंगे। जो हमे खाना देगा वही होगा हमारा भगवान। छोड देंगे यह जगह... यह गांव... जाओ नाम लिखवाओ।”
उस आदमी ने हमे कुछ पैसा दिया जिससे हाथों की अंजली भर गई।
वह कहने लगा, “दो दिन के बाद आऊंगा। सामान पैक कर देना।”
जीवन मधुर हो गया। उन दो दिनों में हर घर की छत से धुंआ उठा। समारू पास के किसी बाजार में जाकर एक डेगची और दो कटोरियां खरीद कर लाया। उन सामानों को देखकर बहुत कुछ सोचने लगा। डेगची में चावल उबलेंगे। चावल पकने की खुशबू से सारा घर महक उठेगा। दोनों थालियों में चावल बांटा जाएगा। समारू खाएगा। हसेगा। खेलेगा। विश्वास तक नहीं हो रहा था। वास्तव में क्या ऐसे भी दिन आएंगे हमारे लिए?
दो दिन के बाद कांटाभाजी से यात्रा। रेल में बैठते समय बेटी भय से रोने लगी। मेरी छाती जोर से धड़कने लगी। रेल हमें एक अनजान रास्ते की तरफ ले गई। पीछे छूट गए गांव... जमीन... खेत.. कांटे... तालाब।
उसके बाद ठेकेदार हम से तागीद करने लगा, “कहां जा रहे हो- क्या करने जा रहे हो, किसी को कुछ कहने की जरूरत नहीं है। समझे? कोई अगर पूछता भी है तो कहोगे, मामा के घर को, मौसी के पास- समधी के घर मेहमान होकर जा रहा हूँ।”
रात खत्म होकर सुबह हो गई। खाना खाने के समय उस जगह पहुंच गए। ट्रक भरकर और बहुत सारे आदमी र्इंटाभट्टी के पास में उतरे। गांव से भी बडी थी वह जगह। आदमियों और औरतों के झुंड ही झुंड। कतारबद्ध ताल के पेड़ं से बनी झोपडियां, दरवाजे पर लटकते बोरे। ठेकेदार ने हमको गिनाकर अपने मालिक के हवाले कर दिया। उन दोनों में क्या बातचीत हुई, ये हम नहीं समझ पाए। ठेकेदार गायब हो गया। मालिक हमारे पास आया। वह हमारी भाषा में ही टूटी-फूटी बात करने लगा, “एडवांस पैसे लेकर जाओ और अपना घर बनाओ। तीन दिन के बाद काम मिलेगा। मुझे एकदम पक्का काम चाहिए।काम पसंद नहीं आने पर निकाल दिए जाओगे।”
जितने भी लोग इकट्ठे हुए थे सब अलग-अलग हो गए। कैसे घर बनाया जाएगा सोचते समय एक आदमी ने पास में आकर हिंदी में पूछा, “घर कैसे करोगे? आओ, हमारी दुकान है। वहां बोरें, बांस, तालपत्र, सुतली सभी मिलती हैं। लकड़ी और चावल भी मिलता है।”
हमने बोरों से कुटिया तैयार की। ऊपर बिछा दिए तालपत्र। वह थी हमारे सपनों की कुटिया, लक्ष्मी घर। यहां मिलेगा हर दिन का खाना। तीन दिन के बाद हमें काम मिला। पहले-पहल हजार र्इंटों का लक्ष्य। मैं मिट्टी गुंथने के काम में रह गई। समारू रह गया र्इंट बनाने और साइज करने के काम में। बेटी बैठ गई मेरा पास। खेल रही थी अपनी उम्र के बच्चों के साथ। नया- नया खूब खराब लग रहा था। मन नहीं लग रहा था। किंतु धीरे-धीरे लगने लगा। मालिक आता था बीच-बीच में, काम देखकर चला जाता था। एक दिन मेरे पास आकर वह कहने लगा, “नए आए हो? कांटाभाजी से? साथ में और कोई नहीं केवल तुम दो लोग? तुम्हारे आदमी का नाम क्या है? र्इंटे बनाता है?
चिकनी मिट्टी के ऊपर मेरा पांव नाच रहा था। मेरा शरीर नाच रहा था। मैने उसके सारे प्रश्नों का उत्तर दे दिया था। वह कह रहा था- “ठीक है। ताकत लगाकर काम करो...”
ताकत लगाकर ही मैं काम कर रही थी। शाम होते मैं थकी हारी घर लौटती थी। सोने का मन करता था। किंतु चावल और डेगची देखकर फिर से ताकत आ जाती थी। गरम भात बनाती और नयी थाली में दोनो के लिए डाल देती थी। मैं भी खाती --- इस तरह खाना मिलने से कई साल आराम से जी लेती। खाते-खाते ख़ुशी से मेरी आंखों से आंसू गिरने लगते। सुबह के लिए पखाल रख देती- नहीं खाने से दिनभर पर मेहनत कैसे करते?
एक रात समारू ने खाना खाने के बाद अंगीचे से हाथ पोछते हुए कहा, “मालिक को मेरा काम पसंद नहीं आ रहा है। कहता है तुम अच्छी र्इंटे नहीं बना सकते हो। खाली ठग रहे हो, बैठे रहते हो। जानती हो उकिया, मैने सुना है, मालिक ने कहीं अपनी गुप्त कोठरी बना रखी है। उसकी बात नहीं मानने पर या किसी के ऊपर क्रोध आने से वह उसे वहां बंधी बनाकर रखता है और वहां पिटाई करता है।”
बेटी के सो जाने के बाद उस रात उसके पास जाकर मैने कहा- “तुम अच्छी तरह काम करो। तुम हो तो मेरा सब कुछ है।”
एक दिन मालिक ने मेरे पास आकर कहा- “मेरे घर में खाना पकाना और बर्तन धोना तुम औरत लोगों का काम हैं . जो भी वहां खाना बनाता है, उसे खाने को भी मिलता है। एकाध साड़ी भी मिल जाती है। आज से खाना बनाने की तुम्हारी बारी। इसलिए इस काम से छुट्टी....”
मुझे उस समय मालिक भगवान की तरह लगा। दुखियारों की अवस्था समझता है वह। काम देता है। खाने को देता है। साड़ी भी देता है। हाथ धोकर बेटी को लेकर मैं उसके घर गई। वह इतना बड़ा आदमी था। फिर वह हमारे हाथ का बना खाना खाएगा? कितनी तरह की सब्जियां खाते होंगे? क्या मैं स्वादिष्ट पकवान बना सकती हूँ? उसने कहा हैं, किसी भी तरह से ... खाना बनाना ही पडेगा।”
मना करने से अगर उसने उसे उस कोठरी में कैद कर लिया तो- क्या होगा उसकी बेटी और समारू की हालत? मैं गई। बैटी को बैठाकर झूठे बरतन मांजे। घर में झाडू लगाते समय मालिक आ गया। सिर से पैर तक देखा- छाती की तरफ नजर दौड़ाई और कहने लगा, “ऐसे खड़े-खड़े झाडू नहीं लगाते।कमर से झुककर झाडू लगाओ। तुम लोगों को गरीब मजदूर बनाकर भगवान ने वास्तव में ठीक ही काम किया है। झाडू नहीं होता है तो... आओ रसोईघर में... रसोई बनाना जानती हो? ”
भयभीत होकर मैने कहा, “दाल- चावल बनाना जानती हूं।”
“मगर हम मांसाहारी हैं, दाल भात से हमारा पेट नहीं भरता है।” वह हंसते-हंसते कहने लगा। मेरे पास आकर उसने मुझे पकड़ लिया। गाल पर अपना मुँह रगड़ते हुए अपनी भाषा में वह कुछ कहने लगा। मुझे कुछ भी समझ में नहीं आया, मगर इतना समझ में आ गया था कि वह कुछ अच्छी बात नहीं कर रहा है। रसोई बनाने के लिए उसने मुझे नहीं बुलाया। उसके मन में पाप था। मैने अपनी सारी ताकत लगाई और वहां से भाग आई। बेटी को लेकर मैं समारू के पास भाग आई। दुखी होकर कहने लगी, “मालिक को भगवान समझ रहे थे, मगर वह अच्छा आदमी नहीं है। रसोई बनाने के लिए उसने मुझे अपने घर बुलाया, मगर वह मेरी इज्जत लूटना चाहता था... चलिए हम यहां से भाग जाते हैं... मालिक तो हमसे भी ज्यादा भूखा है....।”
समारू की दोनों आँखें जल उठी। माटी से सने हुए हाथ लिए वह कहने लगा- “तुम घर को जाओ... मैं मालिक के घर से आ रहा हूँ. ”
मैने उसकी आंखें, क्रोधाग्नि देखकर कहा, “नहीं,, तुम उसके पास मत जाओ। हम क्या उसके साथ लड़ पाएंगे? आज रात को चुपचाप यहां से चले जाएंगे।”
मगर समारू नहीं माना। फन निकालकर बैठ गया। वह उसके घर गया फिर नहीं लौटा। खाना खाने का समय हुआ मगर वह नहीं लौटा। मेरा दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। समारू को मालिक ने कहीं उस कोठरी में बंद तो नहीं कर दिया? उस इलाका में वह राजा है। यहां उसकी मर्जी के बिना पत्ता नहीं हिलता है। मुझे डर लगने लगा, मगर कुटिया से बेटी को लेकर बाहर कदम रखा। मालिक के घर जाकर चिल्लाने लगी, समारू !... समारू... !
भीतर से आवाज आई, “तुम्हारा समारू एक बदमाश आदमी था। मेरे घर आकर मुझसे बदतमीजी करेगा? जिन हाथों को मैने काम दिया था उन्हीं हाथों से मुझे मारेगा? उसको बंद करके रखा है....।”
“छोड दो बाबू उसे... हम चले जाएंगे...” मैने गिडगिडाते हुए कहा।
“हां, छोड़ देंगे। सुबह छोड़ देंगे। तुम भीतर आओ। खाना खाओ। तुम्हारी लड़की को भी खिलाओ। पलंग पर रानी की तरह सोओ। सुबह समारू को लेकर घर जाओगी... साड़ी.. और पैसा भी पाओगी।”
उसकी बात अनसुनी कर घर लौट रही थी। मगर यमदूत की तरह मुझ पर दो आदमी झपट पड़े। एक ने बेटी को मेरे पास से जबरदस्ती छुड़ा लिया, और दूसरे ने मुझे भीतर धक्का देकर बाहर से चिटकनी लगा दी। मैं खूब रो-रोकर चीत्कार करने लगी। मगर वह चीत्कार कहां खो गई, पता नहीं।
कमर की गांठ खोलने पर खोसे से पैसे झनझनाकर नीचे गिर गए, बालों की चोटी खुल गई। चूड़ियां टुकडे-टुकडे हो गई। पलंग में मालिक ने मुझे रानी नहीं बनाया, भिखारण बना दिया। उसके बाद भी उसे चैन नहीं। यम के बाद आए यम के दो दूत। मेरी छाती फट गई। मैं बेहोश हो गई। होश आते समय सुना, “समारू नहीं है। वह कहीं भाग गया है। बदमाश ओडिया मजदूर।”
यह बात सुनकर मुझे लगा कि मैं एक बार फिर बेहोश हो जाऊँ। मगर बहुत कष्ट के साथ उठी। हिम्मत कर मैने अपनी साड़ी पहनी। मेरी बेटी बेफिक्र होकर सो गई थी। उसे क्या पता किसने उसकी मां का हरण किया और उसके पिता का। मैने लोगों को समारू को खोजने में व्यस्त देखा। मुझे तो उन्होंने बीडी के ठूंट की तरह फेंक दिया था। मेरी तरफ उनका ध्यान नहीं था। मैं अपनी बेटी को लेकर बाहर आ गई। चारों तरफ मुझे अंधेरा ही अंधेरा नजर आने लगा। कहां जाऊंगी? कुटिया को लौट जाऊँगी? समारू कुटिया में नहीं होगा। वहां जाकर क्या करूँ? गांव को चली जाऊँ? मगर कैसे? किस रास्ते से? कोई रेल मुझे पहुंचा देगी समारू के पास? मेरे गांव? मैं आगे चलने लगी। पीछे रह गई हमारी बनाई हुई लक्ष्मी-कुटिया। हमारी खरीदी हुई डेगची और कटोरियां। पहली बार मैने दर्पण देखा था। दौड़कर सब सामान एक बार उठाकर लाने की इच्छा हुई, मगर पीछे लौटकर नहीं देखा। मैने मेरी असली पूंजी इस जगह खो दी। इस जगह ने मेरे समारू को मुझसे अलग कर दिया....मन भीतर ही भीतर रो रहा था। आंखें मानों पत्थर की बन गई हो। इसके बाद मैं ईट-भट्टे की आग लिए बहुत कष्ट के साथ नदी पारकर के कांटाभाजी पहुंची। मुझे पता है। उसके बाद मेरा वहीं गांव। ... वही झोंपडी। वहां पहुंचकर इन पत्थर आंखों से आंसू बहने लगे। छाती की क्षत जगहों से खून बहने लगा। अब क्या करूंगी? क्या खाऊंगी? बेटी को क्या दूंगी? फिर वही भूख। फिर वही प्यास। लडाई करने की और ताकत नहीं थी। सहन करने की और शक्ति नहीं थी। गांव के लोग मुझे देखने आए और पूछने लगे, समारू कहां गया? तू अकेली कैसे आई?
आशा की एक किरण देखकर मैं कहने लगी, “वह आएगा। वह आएगा... पैसे लेकर।”
मगर मेरे जीवन में आशा क्या, उजाला क्या? वह नहीं आया। बेटी का रोना धोना बंद नही हुआ। ‘भात दे...’ भात की रटकर पकडकर वह मुझे मुक्के मारने लगी। मेरे भीतर ममता का झरणा सूख गया था। मैं निष्ठुर हो गई थी, सारा क्रोध उसके ऊपर उतारने लगी। जैसे उसके लिए मेरी इज्जत लूटी गई हो, समारू को खो दिया हो- भूख रह गई हो। गुस्से की आग में जलते हुए उसे कहने लगी- “चुडैल ! बाप को खा गई.. मां को खा ले। शरीर में जितना खून है सब पी ले, जितना मांस है सब खा ले।” भात का सपना देखना छोड़। उसका नाम मत ले। जन्म क्यों नहीं ली पैसे वालों के घर? मेरा ही पेट मिला था तुझे ? वह असहाय होकर और रोने लगी।"
मुझे और गुस्सा आने लगा। उसको हाथों से घसीटकर ले गई गांव के मुखिया के घर। मुखिया को कहने लगी, “इसको रख लो। जो करना है करो... मैं बेच रही हूँ... मुझे कुछ पैसे दो... मैं पेट नहीं भर पाती हूं। अपनी भूख सहन करूंगी या उसकी? ले लो... ले जाओ... मेरी जान बचाओ।” और तरह-तरह की अंट-संट मैं बकने लगी। जब उसने मेरी बेटी को लेकर मुझे बीस रूपए पकड़ा दिए तो मैं जोर-जोर से रोने लगी। बेटी दौड़कर आकर मुझसे लिपट गई और रोने लगी। वह मेरे लिए रो रही थी। उसके आंसूओं की झडी से न जमीन फटी न आकाश। हां, मेरी छाती दहल गई। मेरा कलेजा फट गया। मेरे शरीर की सारी धमनियां बिखर गई। बेटी के हाथों को छुड़ा लिया उस मुखिया की पत्नी ने। कभी दिन थे जब मैं पेड़ के फल बेचती थी और आज अपनी बेटी बेच रही हूँ अपने खून को। बेटी बेचकर निर्लज्जता के साथ दुकान पर गई।
बड़ा, पकौड़ी, जलेबी खरीदकर अपनी झोपड़ी में लौट गई। सब कुछ खा लूंगी। खा लूंगी दोना, पत्र, कागज, धूल-मिट्टी.... सारा गांव... सारा जिला.. सारा राज्य सारा भारतवर्ष। धरती कांपने लगी। आकश घूमने लगा। नीचे बैठ गई। बिखर गया था,वडा, पकौडी, जलेबी का संसार। दीवार को देखकर बहुत कष्ट से पुकारने लगी... बेटी ! बेटी रे... आ... वडा खाएंगे...आ...आ...। खिला दूंगी.. तुझे पकौडी... जलेबी... आशा, स्वप्न।
किंतु कहां है मेरी बेटी?
कहां है उसका रोना? उसके आंसू? उसकी भूख? उसकी मां, मां की आवाज?
कुछ भी सुनाई नहीं दिया।
कुछ भी दिखाई नहीं दिया। केवल अंधकार ही अंधकार।
उसके बाद सारे शब्द निखोज।
भाषा, भाव निखोज।
सरोजिनी अस्त-व्यस्त हो गई। अति करुणा के स्वर में पुकारने लगी- उकिया, उठ उकिया... उसके बाद क्या हुआ, कहो।
मगर कौन? कहां? किधर?
सरोजिनी दीवार की ओर देखने लगी। चारो तरफ नीरव, निस्तब्ध। केवल थे रात के स्वर। कहां गई उकिया? वह खोजने लगी। घर के भीतर-बाहर। कागज के अंदर।
कहां जा सकती है वह?
वह यहीं- कहीं है, कहीं कहीं। दारूण सत्य बनकर।
हम लोगों से बहुत दूर।
गांव की फटी धरती में।
जलते हुए पहाड़ों के सीने में।
हां- अन्न के चीत्कार के भीतर।
ये सब आंखों को देखने का साहस नहीं है, इसलिए वह नहीं है, कहकर घोषणा कर दी जाती है।

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