अंधा राजकुमार / देबब्रत मदनराय

देबब्रत मदनराय (1957)
जन्म-स्थान;:- बिहारी बाग, कटक-2 
प्रकाशित गल्प-ग्रंथ;:- चित्रमाटी, महादेवी, प्रियसाखी, असुंदरी, सहयात्री, सप्तलोक, स्वर्गारोहण, जलपरी, सारी रति जन्ह राति, दृश्य, कन्यारे बंशी।


यह कहानी सच्ची है या झूठी, मुझे पता नहीं। बचपन में दादी मां के मुख से बहुत बार यह कहानी सुनी है। जब हमें नींद नहीं आती थी तब वह अपनी कहानियों का पिटारा खोलकर सुनाने लगती थी। सबसे ज्यादा अचरज की बात थी, विनी दीदी हमेशा जिद्द करती थीं अंधे राजकुमार की कहानी सुनने के लिए। मेरे बहुत बार मना करने के बावजूद भी दादी माँ उसकी ही बात मानती थी। और अंधे राजकुमार की कहानी सुनाती थी।
इच्छा न होते हुए भी मैंने अनेक बार उस कहानी को सुना है। अंधे राजकुमार की कहानी।
घनघोर जंगल। लम्बे-लम्बे पेड़। घोड़े की टापों की आवाज। शेर की दहाड़। गिरते पत्ते मन में उद्वेग और आशंका पैदा कर रहे थे। कुछ घटेगा जरूर। निर्भीक राजपुत्र। हाथ में खून से सनी तलवार। उन्नत भाल पर शोभायमान सोने का मुकुट। इधर-उधर देखते हुए त्रस्त हिरणों के झुंड। पेड़ों के झुरमुटों के पीछे। राजकुमार के शरीर में नहीं थे किसी भी तरह के थकान के निशान; बल्कि पराजित करने की अभिप्सा छाई हुई थी मन के अंदर। जरूर राजकुमारी को तांत्रिक से मुक्ति मिलेगी। खून से लथपथ तलवार के सामने पड़े हुए थे कितने शक्ति के तंत्र और मंत्र। उसी साहस से नीचे उतरेगा राजकुमार घोड़े की पीठ से। प्रज्वलित हो रही होगी आग।उसके सामने बैठकर मंत्र -उच्चारण कर रहा होगा तांत्रिक। भयंकर परिवेश। डर कर बैठा होगा राजकुमार। थोड़ी देर बाद खुशी, आनंद। मुक्त होने का फागुन। फूल खिलने का मौसम। शायद धूसरित हो जाएगा सब-कुछ। अघटनीय घटना घटेगी। जो होगी अभूतपूर्व या अस्वाभाविक। मंत्र-उच्चारण कर एक मुट्ठी सिंदूर फैंक देगा अग्निकुण्ड में नहीं, वरन राजकुमार के ऊपर। गिर जायेगी तलवार। एक डरी हुई आवाज। प्रतिध्वनित हो उठेगा सारा जंगल। कुछ भी समझ में आने से पहले अंधकार हो जाएगा चारों तरफ। अंधा हो जाएगा राजकुमार।
इस प्रकार एक विचित्र कहानी को तूलिका से आँकने के बाद दादी शायद थकान अनुभव करती है। चुप हो जाती है। पान का डिब्बा खोलकर एक पान का बीड़ा निकालकर मुँह में डाल देती है। उसके बाद इधर- उधर देखती कि हम सब सो गए या नहीं। वास्तव में मुझे सबसे पहले नींद आती थी। कहानी का अंतिम भाग सुनना मेरे लिए बिल्कुल संभव नहीं होता था। जितना सतर्क रहने से भी आँखों में नींद आ जाती। सुबह उठकर सोचता हूँ, कहानी में जो कुछ हुआ, साधारण है। सच कहता हूँ पता नहीं क्यों, यह कहानी मेरे मन के अंदर कोई खास प्रभाव नहीं डाल सकी। अंधेरी रात में आम के पेड़ की डाली के नीचे आने पर बालू फैंक कर लोगों को भूत से डराने जैसी घटना।
वास्तव में हरा-भरा था हमारा गांव। रात का अंधेरा हमारे लिए जितना असुरक्षित कहानी की तरह, दिन उतना ही विश्वसनीय और सुरक्षित भविष्य वाला। शायद इसलिए रात में भूत होकर डराने वाले लम्बे-लम्बे ताल के पेड़ अपने भीतर संकुचित हो जाते। छाया भी दिखाई नहीं देती। सुनाई नही देते बातूनी चिड़ियाँ के स्वर। जिससे रात लगने लगती और डरावनी।
दृढ़ संकल्प। पढ़ाई करूंगा। नौकरी करूंगा। पार कर जाऊँगा सारे भय और आशंका। भूतों से भी ज्यादा आतंकित करती हमारे घर की टूटी-फूटी दीवार। टूटी-फूटी दीवार दर्शाती है हमारे अभावग्रस्त परिवार के बारे में। कभी-कभी इस दीवार से चित्ती-साप सिर निकाल कर भर देता था विषाद। जितना मर्जी मिट्टी-गोबर का लेप लगाने से भी फटी दीवार के निशान छुपते नहीं थे, वरन साफ़ भयंकर दिखाई देते थे।
इनके स्पष्ट दिखने के पीछे भी एक बड़ा कारण था। जीवन की आवश्यकता और दायित्व को पूर्ण करने में पूरी तरह से असहाय थे पिताजी। पूजा-पाठ करके परिवार चलाने में समर्थ नहीं थे। इस बात को स्वीकार करते हुए मुझे एक अनजान भय लगता था। पाँच बहिनों के बाद मेरा जन्म हुआ। विनी सबसे बड़ी बहिन। वह स्कूल नहीं जाती थी। तीसरी या चौथी कक्षा में शायद अटक गई। दिखने में काली थी तोरई के बीजों की तरह। मगर माँ को रसोई बनाने में मदद करती। बाड़ी से साग-सब्जी लाकर साफ कर देती। उसकी नन्ही-नन्ही उंगलियों से अलग हो जाता सब कुछ;: सड़े पत्ते,फूल,कीट।
साग-सब्जी धोते समय माँ के चेहरे पर झलकने लगते मुग्ध और संतुष्ट होने के भाव। कहती थी, “ ससुराल जाएगी तो कोई नापसन्द नहीं कर सकता है।“
कुछ उत्तर नहीं देती थी विनी दीदी, वरन हंसकर बाड़ी के पीछे दौड़कर चली जाती थी। जहां साफ-सुथरा बरामदा मानो उसका इंतजार कर रहा हो। बरामदे में नीचे की ओर केले के पेड़। पपीते झांक रहे थे हरे-भरे पत्तों के नीचे से।
उसके पास थे अमरूद के पेड़। उन पेड़ों पर फ़ूल लगे हुए। और कितने दिनों के बाद वे अपने स्वाभाविक रूप में आकर पक जाएंगे। सजना साग कितने दिनों के बाद फल बन जाएंगे। नींबू के पेड़ दिखेंगे परिपूर्ण। बाड़ी के नीचे वाले खेतों का रंग बदल जाएगा। हरे-भरे खेत खलिहान इस बात का विश्वास देते है कि यह वर्ष अच्छा होगा।
विनी दीदी के लिए यह मामूली घटना नहीं है। इस साल खेतों में अनाज ज्यादा होगा। दीदी की शादी हो जाएगी। गत साल उसकी शादी रुक जाने का यह कारण था। फसल काटने के बाद पिताजी के चेहरे पर असहायता के चिन्ह दिखाई देने लगे थे। पिछले साल जो हुआ था, इस साल उसकी पुनरावृत्ति नहीं होगी, सोचकर मन में विश्वास जगा था। उस दिन वह खेत के काम में लगी हुई बालू छाटेंगी, खाद देगी, कीटनाशक दवाई छिड़केगी। गोबर का लेप करके सौभाग्य का स्वागत करने सुबह से विनी दीदी व्यग्र थी इसलिए फसल की विपुलता को अधिक सुरक्षित रखने के लिए बीच में एक बांस गाड दिया था। पुतले के दो हाथ भी लगा दिए थे। और सर पर एक हांडी भी लगा दी थी। चूने से आँख, नाक, कान जैसा रूप बनाकर एक चेहरे की तरह दिख रहा था।
पालभूत। बिजूखा। अविचलित, स्थिर। केवल फ़सल पकने के जितने दिन नजदीक आ रहे थे विनी दीदी उतनी अस्थिर विव्रत दिख रही थी। क्या होगा? क्या उसका भविष्य असुरक्षित होगा?
धान कटने का दृश्य विश्वसनीय था। पिता का चेहरा बहुत प्रसन्न दिख रहा था। आशा से अधिक फसल अमल होने का सुख हमारे परिवार को हर्षित कर रहा था। टूटी-फूटी दीवार पर अटका हुआ था आतंकित समय। फागुन में विनी दीदी की शादी के समय सारी आशाओं के साथ विभोर हो गया था मैं। दादी ने पिता से कहा, “भोज के लिए धान अलग रखो ताकि उस समय किसी भी प्रकार की कोई तकलीफ़ न हो। ”
माँ का शंकित उद्वेग भरा चेहरा नजर आ रहा था। रखे हुए धान के ऊपर रूक गया पापा का हाथ। अभावग्रस्त आलोक में वे दोनों देख रहे थे शायद विनी दीदी की शादी का न होना धान एकमात्र कारण नहीं है। और एक कारण है जो दादी माँ बिल्कुल देख नहीं पाती है। हो सकता है जिस कारण की वजह से पिताजी की मेहनत और माँ की पूजा-पाठ असहाय हो जाए। विनी दीदी को देखने के लिए आए भद्र आदमी का चेहेरा निस्तेज हो गया। बात करते-करते आधे में अटक गई। उपायहीन अनुभव कर रहे थे पिताजी। समय बीतता जा रहा था। जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा था,वैसे- वैसे पिताजी विव्रत होते जा रहे थे।
भले विनी दीदी का रंग काला नहीं था, मगर था सामान्य मैला। मन को जितना संभलाने से पिताजी असहाय अनुभव कर रहे थे हमारे सामने। क्योंकि विनी दीदी के बाद दो बहनें और बड़ी हो गई थी। उन के लिए शादी के प्रस्ताव आने लगे थे। क्योंकि उनका रंग गोरा था। ठीक माँ की तरह दिख रही थी। पिताजी जैसी बिल्कुल नहीं है। पिताजी इतने काले क्यों है, मुझे पता नहीं था।
केवल विनी दीदी के काले दिखने का रहस्य मुझे मालूम था। यह बात मैंने दादी माँ से सुनी थी। जन्म के समय वह चम्पा-फूल की तरह गोरी दिखती थी। हमारे गाँव की औरतों की नजरें अच्छी नहीं थी। बुरी नजर पड़ते ही बच्चे बीमार हो जाते थे। इतनी सुंदर बच्ची के ऊपर डायन की नजर कैसे नहीं पड़ती;! दादी ने उसका गोरा रंग छुपाने के लिए उसके सारे शरीर पर काजलपाती की तरह काला पोत दिया था। वही काला रंग और छुट नहीं पाया हमेशा के लिए।
यह बात कहने के बाद दादी माँ की हंसी से पता चल जाता था कि वह झूठ बोल रही है।
शायद विधि का यही विधान था। उसी विधि के विधान से गिर गई है विश्वास की दीवार, धैर्य का बांध। सब कुछ उजड़ गया। जितनी मरम्मत कराने के बाद भी छप्पर ठीक नहीं हो पा रहा था। क्या किया जा सकता था? कैसे समाप्त होगा यह असहाय बोध? उपायहीनता से कब मुक्ति मिलेगी? सुनाई नहीं देंगे पिताजी के दीर्घश्वास, माँ के रोने के स्वर।
“बच्चा है;!”
प्रस्ताव लाने वाले दूर के रिश्तेदार की आवाज में शंका झलकती थी। इधर-उधर देखने लगे पिताजी। द्वंद्व और उपायहीनता से मुक्त होने के लिए यहाँ दिखाई दे रही थी एक निष्प्रभ उजाले की किरण। बल्कि वे स्पष्ट देख पा रहे थे विनी दीदी का सुरक्षित भविष्य।
पिताजी के हावभाव बदल गए। माँ को पूछने लगे। उनकी राय जाननी चाही। केवल सुनना नहीं चाहते थे। उस प्रस्ताव से सहमत हो गए थे वह। शायद पिताजी को लगने लगा था मानो इतने दिनों से असहाय-बोध से मुक्त होना चाहते थे। माँ की बातों का विरोध करते हुए कहने लगे, “हाँ, मुझे भूत लगा है। भूत नहीं तो क्या? तीन जवान लड़कियों के बाप को भूत नहीं लगेगा? मन को समझा दो। समझ लो, विनी की तकदीर में यहीं लिखा था।”
जो किस्मत में लिखा होता है, वही होता है। ये बात मुझे मालूम नहीं थी। जिस दिन एक हांडी सिर पर रखकर मेरे सामने पालभूत की तरह विनी दीदी खड़ी हो गई थी, तब पता चला कि यहीं भाग्य होता है। विनी दीदी का भाग्य।
मैं भीतर से हिल गया। आँखें बंद हो गई। साँसे रूक गईं। मानो हृदय फट जाएगा। चारों दिशाएँ अंधेरे से भर गईं। मगर कुछ भी नहीं किया जा सकता था। आलोकित धरती के खो जाने के इस अनुभव ने मुझे नीरव कर दिया, एकदम वाकशून्य।
समय-समय पर माँ के रोने की आवाज सुनाई देने लगी। घर लिपते समय उसके रोने के स्वर और करूण हो गए। ऐसी परिस्थिति में उसके पास रोने के सिवाय और कुछ भी नहीं था। पिताजी उसे दूर से देख रहे थे, दीवार के उस तरफ से। मानो उसकी आँखों से आँसू पोंछने का उनमें बिलकुल साहस नहीं था।
वह निर्धारित दिन नजदीक आ गया। घर एकदम साफ सुथरा दिख रहा था। विनी दीदी के चेहरे पर उदासी स्पष्ट दिखाई दे रही थी। उसके पैरों पर अलता लगाते समय माँ ने कहा,” हम निरुपाय है। मैं भगवान से प्रार्थना करती हूँ कि तुम अपने घर-संसार में खुशी से रहो। देखना, धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा। वैसे कुछ भी दिक्कत नहीं आएगी।”
माँ विनी दीदी के चेहरे की तरफ और नहीं देख पाई। नीचे देख उठ खड़ी हुई। कांप उठे विनी दीदी के होंठ, मगर क्या कहती? कौन से सुखी संसार की आशा रखेगी? सारा जीवन किस तरह एक अंधे आदमी को रास्ता दिखाएगी, शायद वह यह सोच रही थी। हर लड़की की तरह एक विचित्र खुशी से पुलकित होना उसकी तकदीर में नहीं था।
घर-संसार बसाएगी। सुख से रहेगी विनी दीदी। वास्तव में अचरज में पड़ गई, जब माँ ने ऐसा कहा। वह झूठ है। माँ कभी भी झूठ नहीं कहेगी। उसने झूठ क्यों कहा, उसे समझ में नहीं आया। प्रतिदिन की तरह वह कह सकती थी – “जब तुम ससुराल जाओगी, तो कोई भी तुम्हारे हाथ से बनी चीजों को नापसंद नहीं करेगा।“
सुबह-सुबह डोली आ गई। आगे शंख बजाने वाला। शंख-ध्वनि ने अकथनीय दुख भर दिया। सुनाई देने लगे रोने के स्वर। अवश्य मेरी माँ रो रही थी। दादी माँ पल्लू से आँसू पोंछ रही थी। पिताजी व्यस्त और विव्रत दिखाई देने लगे थे। मेहमानों से बातचीत करने लगे थे। केले के पत्ते बाड़ी से काटकर लाए गए। डोली लेकर आए हुए लोगों को गुड और खोया खाने के लिए परोसा गया जिसमें गरम दूध भी डाला गया।
जब वे खाकर उठे तब तक अंधेरा हो गया था। तुलसी चौरा के मूल में लगा दीपक भी बुझ गया था। कुलदेवी की घण्टध्वनि सुनाई देने लगी माँ के रोने की आवाज की तरह।
लालटेन के उजाले से कुछ अंधेरा कम होने लगा था। सफ़ेद कपड़े पहने हुए एक गंभीर बुजुर्ग दिखाई दे रहे थे। वे विनी दीदी के जेठ थे। उनकी खातिरदारी में पिताजी को बहुत समय लगा।
“और देर मत करो।”
पिताजी का यह स्वर अत्यंत अपरिचित लगा। माँ के लिए कहा गया यह कथन घर में चारो तरफ फैल गया। आंसुओं की बूंदें भारी होने लगी। धीरे-धीरे धारा बनकर गालों के ऊपर गिरने लगी। पल्लू से उन आंसुओं को पोंछने के लिए माँ के पास और समय नहीं था। दो-तीन बार दहलीज पर लडखड़ाकर गिर गई। हर दिन वहाँ से चलने- फिरने वाली माँ कैसे चौखट भूल गई?
अलग रखे धान के बोरे वैसे ही पड़े रह गए दीवार के पास। भोज भी नहीं हुआ। घर के भीतर बिलकुल भी भीड़ नहीं हुई। कोई भी रिश्तेदार नहीं आए। माँ के निर्देश से एक जगह कलश रखा हुआ था। दहलीज पर। उसके ऊपर आम के पत्ते रखे हुए थे। नीचे धान के कुछ दाने। जो सौभाग्य का प्रतीक था। मगर विनी दीदी के तकदीर में सौभाग्य कहाँ?
डोली में बैठते समय विनी दीदी ने अपना हाथ मेरी ललाट तथा पूरे शरीर पर घुमाया।
शायद वह कहना चाहती थी, “जल्दी बड़ा हो जाएगा। नौकरी करेगा। बहुत कमाएगा। हमारे घर का दुख दूर होगा। जैसी मेरी शादी हुई है, तुम कभी भी अपनी बेटी की ऐसी शादी मत करना।”
आश्वस्त करता हुआ एक पल। बड़ा होगा। नौकरी करेगा। घर के दुख दूर करेगा। शायद मैं बड़ा हो गया। वास्तव में अचरज की बात नहीं है;! विनी दीदी का रोता हुआ चेहरा देखकर मैं पूरी तरह से सिकुड़ गया। कहने लगा, “ तुम हर दिन अंधे राजकुमार की कहानी सुनना चाहती थी न;! मेरी बात की तरफ दादी ने ध्यान नहीं दिया। देखा, पिताजी ने तेरे लिए एक अंधे पति को चुना। उसका हाथ पकड़कर तुझे चलना है, रास्ता दिखाना है। “
अंजुली भर चावल बिखर गए। डोली उठते समय। शायद विनी दीदी के हाथ कांपने लगे। और उसने मेरी तरफ नहीं देखा। माँ की तरफ भी नहीं। पिताजी का चेहरा तो बहुत पहले से अंधेरे में छुप गया था।
तीन-चार गाँव पार करने के बाद विनी दीदी का ससुराल आता है। रास्ता खोजने की कोई जरूरत नहीं है। जहां डोली रखी जाएगी वहीं उसका घर होगा। उसकी दुनिया। सुख की दुनिया नहीं, दुख की दुनिया;!
विनी दीदी के जाने के बाद आधी रात तक माँ के रोने की आवाज सुनाई दी। दादी माँ थककर दीवार से सटकर सो गई। पिताजी बरामदे में इधर-उधर घूम रहे थे। मैं बिलकुल सो नहीं पाया। विनी दीदी जो नहीं थी। मगर ऐसा लग रहा था मानों वह इसी घर में है। मेरे पास सोई हुई है और छ्प्पर की फांक से देखकर तारें गिन रही हैं। एक ... दो... तीन...।
जब नींद खुली तो सुबह हो चुकी थी। बाड़ी से साग-सब्जी लाकर माँ उसे छांट रही थी। पिताजी खेत की तरफ गए हुए थे। दादी माँ चाय पी रही थी। नि:शब्द घर। मानो कुछ भी नहीं घटा हो। कल कुछ भी नहीं हुआ हो। जो कुछ भी हुआ वह शायद पूरी तरह से स्वाभाविक था। एक गरीब परिवार के भाग्य में ऐसा ही होता है। सब कुछ न संभलने वाली अवस्था। विपर्यय होने का दृश्य। वरन हवा में धीरे-धीरे सब व्यवस्थित हो जाएगा। डंक की तरह छत उलट पड़ी हुई थी। दिल के घाव भर जाएंगे।
जो कुछ घट गया उसका कोई अर्थ नहीं, कोई यथार्थता भी नहीं। शायद इसलिए विनी दीदी की उपस्थिति भी याद नहीं रही। टूटी दीवार से फन निकाले चित्ती साँप के भी दर्शन नहीं हो रहे थे। दादी माँ के पास बैठकर और कहानी सुनने का मोह धीरे-धीरे भंग हो गया।
एक महीना, दो महीने के बाद की कहानी। स्कूल से लौटते समय दहलीज पर अचानक ठिठक गए मेरे पाँव। घर के भीतर से सुनाई पड़ रही थी विनी दीदी की आवाज। मैं प्रसन्न हो गया।
“तुम किसी भी प्रकार की चिंता मत करो। मेरे लिए दुखी मत हो। पिताजी की हालत मुझे पता है। क्या अपने जवाईं को बुला सकती हो? सुना है, तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं है। मन तड़पने लगा। इसलिए दौड़ी चली आई। पिताजी कुछ कहेंगे तो, मैं समझा लूँगी।”
विनी दीदी की आवाज में दृढ़ता थी। मानो सभी खतरे उठाने के लिए वह तैयार थी।
“गाँव वाले लोग क्या कहेंगे? गरीबी के कारण भले ही हमें भोज नहीं दे पाए मगर इसका मतलब यह तो नहीं है कि हम अपने दामाद को भी नहीं बुला सकते है!”
टूटती जा रही थी माँ अपने भीतर। मगर अपने चेहरे पर किसी भी अभावग्रस्त होने के भाव नहीं लाना चाहती थी। मानो फटी दीवार पर कहीं से गीली मिट्टी लाकर अपने हाथों से जल्दी- जल्दी भर देगी।
विनी दीदी हंसने लगी। वह हंसी सारे घर में फैल गई। दीवार चकचक दिखने लगी। फर्श का रंग बदल गया। और छप्पर का कोई नामोनिशान नहीं था। संगमरमर का राजमहल। हीरे, मोती, माणिक्य के सारे फूल सब अपनी- अपनी उपस्थिति दर्शा रहे थे आभिजात्य तरीके से।
“कुमार पूनम को तुम्हारे पिताजी जायेंगे जवाईं जी को आमंत्रित करने और तू.....। ” माँ समझाते हुए कहने लगी।
“रहने दे, ये सारी बातें। ज़ोर से भूख लग रही है। खाने के लिए कुछ दे। ”
विनी दीदी के कहने के तरीके से लग रहा था कि उसे जबर्दस्त भूख लगी है। और प्यास। इतना रास्ता पैदल चलकर आई है।
और क्या पूछती माँ;? कुछ समय के लिए अटक-सी गई वह अपने अंदर। धीरे से पूछने लगी, ” क्या तू घर से गुस्सा करके आई है? झगड़ा करके आने की खबर सुनकर तेरे पिताजी दुखी हो जाएंगे।”
फिर एक बार ज़ोर से हंसने लगी विनी दीदी। उस हंसीनुमा फूल से सारा घर महक उठा। यह मालूम हुआ कि वह आनंद में है। माँ जो सोच रही थी, वह गलत है। केवल झूठ।
शायद और पूछने के लिए प्रश्न तलाशने लगी माँ। ससुराल यहाँ से कितना दूर पड़ता है? खाने में क्या-क्या खाया था;? जेठ और जेठानी तुमसे कैसा रखते है? नहीं, ये सब कुछ भी नहीं पूछ पाई वह। चारो तरफ इधर-उधर देखकर धीरे से माँ ने पूछा। उनका उत्तर देने में वह सक्षम होगी, ऐसा मैंने सोचा न था।
“मेरे काले रंग को देखकर तुम्हारे मन में संदेह पैदा हो रहा है। और कहना चाहती हो कि जवाईं प्यार करता है या नहीं? ” कहकर विनी दीदी हंसने लगी। फिर वह कहने लगी, “ एक अंधा पति कैसे जान पाएगा कि उसकी पत्नी गोरी है अथवा काली। लेकिन उन्होने मुझे यह बात जरूर पूछी थी कि मैं साँवली हूँ या गोरी। उनकी यह बात सुनकर मैं हंसने लगी। जिनकी आँखें नहीं है वे कैसे जान पाएंगे रूप-सौंदर्य का रहस्य। मैंने उनसे झूठ कहा। उनके गाँव में मैं सबसे ज्यादा सुंदर हूँ, कहने में मुझे कोई हिचकिचाहट अनुभव नहीं हुई। माँ, रूप-रंग में कोई सौंदर्य नहीं होता है, होता है तो मन में,हृदय में। अंधे होने के बावजूद भी वे बहुत अच्छे है। उन्हें पाकर मैं बहुत खुश हूँ।”
मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। यह विनी दीदी का पागलपन है या कोई आलौकिक शक्ति। मेरे लिए अब यह कहानी कोई अनजानी नहीं थी। इस कहानी पर किसी को विश्वास नहीं होगा। विनी दीदी वास्तव में एक राजकुमारी बन गई है। जिसके रूप-रंग और सौंदर्य पर मंत्र-मुग्ध है एक अंधा राजकुमार।
यहीं पर खत्म होती है विनी दीदी की कहानी।
नहीं, खत्म नहीं होती है।
हो सकता है, यह कहानी पच्चीस–छब्बीस साल पुरानी हो। लेकिन बहती हुई चल रही है मेरे साथ एक भरी हुई नदी के पानी की तरह। गाँव छोडकर अभी मैं कटक में रहता हूँ। गाँव की बाड़ी में केले के हरे पत्ते अब और क्या सपने देख रहे होंगे, मुझे पता नहीं। आँधी-तूफान ने अमरूद के पेड़ का अस्तित्व समाप्त कर दिया है। दादी माँ और अब नहीं है। उसकी आवाज अब याद भी नहीं आ रही है। माँ मेरे पास रहती है। उसकी कमर टूट गई है नीचे गिरने की वजह से। भले ही, डॉक्टर की कोशिशों से उठकर बैठ पाती है मगर अत्यंत कष्ट के साथ। वह बिस्तर पर है। तीन महीने पहले बेटी की शादी हुई है। दामाद इंजीनियर है। मुंबई में नौकरी करता है। बेटी उसके साथ में रहती है। गरीबी के बारे में सोचना तो एक सपने की तरह है, मेरी बेटी का घर प्राचुर्य से भरा हुआ है।
बीच-बीच में बेटी फोन से बात कर लेती है। अपने सुख-दुख के बारे में बतलाती है। तीन-चार दिन पहले उसके रोने की आवाज सुनकर घर में शोक का माहौल बन गया। किस तरह समस्या का समाधान किया जाए इसके लिए सारा परिवार व्यस्त और विव्रत हो गया। व्याकुलता एवं क्रोध से आगबबूला। लेकिन कुछ भी नहीं किया जा सकता था। किस तरह इस उपायहीनता और असहायपन से छुटकारा पाया जाएगा?
“मुझे यहाँ से ले जाइए। तुम्हारे दामाद मनुष्य नहीं है। और मैं नहीं सहन कर पाऊँगी उसकी मारधाड़ और गाली-गलौच। मैं क्या इतनी असुंदर हूँ दिखने में। मेरे अलावा ऑफिस में एक और लड़की से प्यार करते है। ”
बेटी की दुःख भरी आवाज मानो घर की दीवारों को भेदती जा रही हो। जिधर भी देखने से उसकी रोती सूरत दिखाई देने लगती है।
किसी भी तरह की कोई कमी नहीं थी। दावत। बंधु-बांधव। फिर भी घर खाली लग रहा था। मुंबई के किसी फ्लैट में कष्ट पा रही है वह। आंसुओं से ओत-प्रोत। रोता हुआ उसका चेहरा मानो आषाढ़ की सुबह।
याद आने लगी विनी दीदी की कहानी। उसका हंसमुख चेहेरा। अलता लगे पाँवों के चंचल भाव।
अंधेरा हो जाएगा, सोचकर माँ ने कितना उसे रोकने की चेष्टा की थी, मगर वह नहीं रूकी थी। उसके झोले में पके केले और आलू रख दिए थे। माँ ने क्या रखा है, क्या नहीं, विनी दीदी के पास देखने तक का समय नहीं था। घर से निकलते समय दीदी ने कहा था, “ज्यादा रास्ता नहीं है। तीन गाँव पार करने के बाद है मेरा ससुराल। अंधेरे से कोई भय नहीं। जाना –पहचाना रास्ता है। रूक जाती,मगर वे मेरे बिना कैसे रहेंगे;!”
माँ के चेहरे पर प्रसन्नता के भाव दिखाई दे रहे थे। उसे समझ में आ गया था कि विनी दीदी खुश है। दुनियादारी अच्छे से निभा रही है। शायद वह आश्वस्त हो गई थी कि कोई भी बड़ा संकट विनी दीदी के जीवन में नहीं आएगा।
मैं नहीं सोच पा रहा था कि वह किस तरह एक अंधे आदमी के साथ अपना जीवन यापन करेगी। किसी भी तरह की कोई दिक्कत नहीं आई। किसी भी तरह की कोई रुकावट नहीं हुई। आँखों की आवश्यकता से ज्यादा पति-पत्नी के बीच प्यार का समझौता क्या ज्यादा महत्त्वपूर्ण नहीं है? अंधेपति के साथ सारी जिंदगी गुजारने का दुख क्या उसकी खुशी के आनंद का अजायबघर नहीं है? और क्या यह बात सच है, सौंदर्य रूप में नहीं होता है। होता है मन और हृदय के अंदर।
कहाँ जाऊँ? फेमिली कोर्ट। थाना। प्रताड़ना करने का आरोप लगाऊँगा। दामाद को हथकड़ी लगवाऊंगा। नहीं,तांत्रिक को बुलवाऊंगा। तंत्र-मंत्र से उसे अंधा कर दूंगा आँखों वाले एक आदमी को अनायास ही। एक साधारण मनुष्य अंधा होने से क्या बन जाता है एक राजकुमार;! तब सीख जाएगा वह प्यार करने की कला;! सब चीजों का समाधान हो जाएगा। सुनाई नहीं देंगे बेटी के रोने के स्वर। फिर क्या एक अंधे पति के साथ मेरी बेटी अपनी जिंदगी गुजार पाएगी?
अंधे राजकुमार की कहानी का अंतिम भाग दादी माँ से कभी नहीं सुन पाया था। राजकुमार अंधा होने के बाद फिर क्या हुआ, यह जानने की जिज्ञासा कभी अनुभव नहीं की गई। शायद ऐसा होता तो कोई उपाय मिल जाता।

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