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Showing posts from February, 2019

साहड़ा-सुंदरी / देबब्रत मदनराय

देबब्रत मदनराय (1957) जन्म-स्थान:- बिहारी बाग, कटक-2 प्रकाशित गल्प-ग्रंथ:- चित्रमाटी, महादेवी, प्रियसाखी, असुंदरी, सहयात्री, सप्तलोक, स्वर्गारोहण, जलपरी, सारी रति जन्ह राति, दृश्य, कन्यारे बंशी। सवारी से उतरकर जब कमला ने पहली बार दुल्हन के रूप में अपने ससुराल के गांव की मिट्टी पर कदम रखा, उस समय वहाँ एकत्रित महिलाएं उसके पैर देखकर कहने लगी कि उन्होने अपने जीवन में इस तरह के सुंदर देवी लक्ष्मी जैसे पैर कभी नहीं देखे! उनकी बातचीत का केन्द्र कमला के अलता रंग से रंगे गोरे पाँव थे। उसी समय शंख-ध्वनि और हुलहुली सुनाई पड़ने लगी। तभी कोई हाथ पकड़कर उसे एक कमरे में ले गया । उसके सिर पर एक हाथ लंबा घूंघट था। वह किसी को भी नहीं देख सकती थी। वह केवल सुन सकती थी उनका हंसी मज़ाक और बातचीत। वह डर गई, जब अचानक किसी ने उसके घूंघट को पीछे की ओर खींच लिया। सुंदर पान के पत्ते के आकार का चेहरा। बादामी आँखें और लाल होंठ। गोरे चेहरे के माथे पर चमक रहा था लाल सिंदूर। वह था कमला का चेहरा। इस अपरिचित माहौल में वह पसीने से तर-बतर हो गई। 'आप लोगों ने नई दुल्हन के पास भीड़ क्यों जमा रखी है? इतनी दूर से

अंधा राजकुमार / देबब्रत मदनराय

देबब्रत मदनराय (1957) जन्म-स्थान;:- बिहारी बाग, कटक-2  प्रकाशित गल्प-ग्रंथ;:- चित्रमाटी, महादेवी, प्रियसाखी, असुंदरी, सहयात्री, सप्तलोक, स्वर्गारोहण, जलपरी, सारी रति जन्ह राति, दृश्य, कन्यारे बंशी। यह कहानी सच्ची है या झूठी, मुझे पता नहीं। बचपन में दादी मां के मुख से बहुत बार यह कहानी सुनी है। जब हमें नींद नहीं आती थी तब वह अपनी कहानियों का पिटारा खोलकर सुनाने लगती थी। सबसे ज्यादा अचरज की बात थी, विनी दीदी हमेशा जिद्द करती थीं अंधे राजकुमार की कहानी सुनने के लिए। मेरे बहुत बार मना करने के बावजूद भी दादी माँ उसकी ही बात मानती थी। और अंधे राजकुमार की कहानी सुनाती थी। इच्छा न होते हुए भी मैंने अनेक बार उस कहानी को सुना है। अंधे राजकुमार की कहानी। घनघोर जंगल। लम्बे-लम्बे पेड़। घोड़े की टापों की आवाज। शेर की दहाड़। गिरते पत्ते मन में उद्वेग और आशंका पैदा कर रहे थे। कुछ घटेगा जरूर। निर्भीक राजपुत्र। हाथ में खून से सनी तलवार। उन्नत भाल पर शोभायमान सोने का मुकुट। इधर-उधर देखते हुए त्रस्त हिरणों के झुंड। पेड़ों के झुरमुटों के पीछे। राजकुमार के शरीर में नहीं थे किसी भी तरह के थकान के निश

नन्ही काऊ मछली का साहस / रजनी कान्त मोहंती

रजनी कान्त मोहंती (1952) पता:- झामराइपुर (बिजुपट्टनायक नगर ), महताब चौक के पास, भद्रक-756181 (ओड़िशा) Email: rajanikanta_mohanty06 AT yahoo.co.in पानी का स्तर लगातार बढ़ता जा रहा था। नदी से बाढ़ का पानी तालाब में घुस रहा था। कुछ जगह लोगों में कानाफ़ूसी थी कि पानी ज़ोर से उफान पर है। तालाब बहुत पुराना था। अभी अभी एक तटबंध तालाब के चारों ओर बनाया गया था जिसकी वजह से उसका विस्तार बढ़ गया था। मगर तालाब के किनारे अमरी तथा कुछ जंगली झाड़ियां उसकी सीमा बनकर खड़ी हुई थीं। तालाब के स्नानघाट के काफ़ी नजदीक में ताड़ के पेड़ भी लगे हुए थे। बाढ़ के पानी से तालाब छलक रहा था और ताड़-पेड़ों की जड़ें पानी में डूब गई थी। बाढ़ के पानी के साथ कई प्रकार की मछलियां, केकडें, साँप और छिपकलियां तालाब में बह रही थी और साथ ही साथ,कुछ मछलियां और अन्य जलीय जीव तालाब से खुले मैदान में बाहर निकल रहे थे बहुत लंबे समय से रह रहे अपने बंद निवास से! उन्हें अपने गंतव्य के बारे में कुछ भी पता नहीं था, लेकिन वह आजादी उन्हें रोमांचक लग रही थी! उफनते तालाब का पानी तरंगों के साथ आगे बढ़ता जा रहा था। पास की दलदल झाड़ियो

कुरेई फूल का रहस्य / देवाशीष पाणिग्रही

“पहाड़ी मौसम,पहाड़ी नदियां और सुंदर स्त्रियाँ – सभी का मिज़ाज अचानक बदल जाता हैं। किसी को भी इसका पता नहीं चलता है।” कहते हुए बलजीत जोर-जोर से हंसने लगी। सरोज उसके इस व्यवहार से आश्चर्य चकित हो गया। बलजीत से कब, क्यों, कैसे पूछना सच में व्यर्थ था। वह ग्रामोफोन के रिकार्ड की तरह लगातार बात करती जाती थी। एक वाक्य पूरा होने के बाद वह जोर जोर से हंसने लगती और हँसते हँसते चुटकुले सुनाती। ऐसे लोगों को हिन्दी में हंसमुख कहते है। मानो उसने तो हमेशा इस तरह हंसने की कसम खा ली हो। मगर सरोज ठीक विपरीत था। अधिकतर समय वह चुपचाप बैठता था। जब लोग बातों में मशगूल होते, वह कहीं दूर दराज कोने में बैठकर उपन्यास पढ़ता नजर आता। अपने कमरे में लौटने के बाद वह गरम रजाई ओढ़कर रेडियो पर भूले बिसरे मधुर गीत सुनता था। वह अपने तकिये के नीचे से प्रियदर्शनी के फोटो बाहर निकालता और पूरे ध्यान से उसके पत्र पढ़ने लगता। बलजीत उसे गंभीर आदमी कहकर चिढ़ाती थी। वह कहती थी, “मिस्टर दार्शनिक, जीवन हमेशा के लिए खत्म नहीं हो जाता है। हरेक को प्रति क्षण ,प्रति पल और प्रति सेकंड जीना चाहिए वह कार्य करते हुए जिसे वह करना चाहता ह

शर्मीली दुल्हन / कृपा सागर साहू

"सुनो जी, सो गई हो? " बिदेई ने अपने कमरे में प्रवेश कर दरवाजे पर कुंडी लगाते हुए अपनी नई नवेली दुल्हन से पूछा। हालांकि, उसकी दुल्हन पूरे दिन काम करने के बाद थक कर चकनाचूर होकर बिस्तर पर पड़ी हुई थी, मगर उसकी आँखों में नींद नहीं थी। वह अभी भी जाग रही थी और निद्रालू आंखों से छत की ओर देख रही थी। जैसे ही उसने बिदेई को देखा, वह बिस्तर से उठकर बैठ गई और छाती के नीचे तक घूंघट निकाल लिया। बिदेई ने दरवाजे के बाहर झाँककर देखा कि कोई देख तो नहीं रहा है। वह सीधे पलंग के पास आकर बैठ गया। उत्तेजनावश अपनी पत्नी को लुभाने के लिए उसके मुंह से कोई शब्द नहीं निकल रहा था। उसने अपना हाथ लजकुरी के कमर में डाल दिया। लजकुरी उस प्रेमपाश से मुक्त होने की कोशिश करते हुए फुसफुसाने लगी, "यह क्या कर रहे हो?" बिदेई ने उत्साहपूर्वक उसकी तारीफ करते हुए कहा, "अब क्यों, नहीं कर सकता हूँ? क्या मैं तुम्हें गुदगुदी भी नहीं कर सकता? मेरे पिताजी बाहर सो रहे हैं .... .... " लालटेन का मद्धिम प्रकाश लजकुरी की सुंदरता देखने के लिए पर्याप्त नहीं था। घूंघट के पीछे उसका छुपा हुआ चेहरा कपड़े के ए

दिल्ली का महाशून्य / सातकड़ि होता

किसान मेला समाप्त हो गया था। देश के कोने-कोने से लाखों लोग आए हुए थे इस मेले में। मेला खत्म होने के बाद सब अपने-अपने घर चले गए। पति का हाथ पकड़ कर रास्ता पार करते समय बसन्ती देवी ने कहा, “जिसको जाना है वह चला जाए। हमने अभी तक कुछ भी नहीं देखा है। इतना दूर आकर दिल्ली देखना हमारे किस्मत में कहाँ? दो- चार दिन देर से लौटने से नहीं होगा।” भवानन्द बाबू ने कहा, “क्यों नहीं होगा। छुट्टी बढ़ा दी जाएगी। आए है तो, चार-पाँच दिन यहाँ रूककर दिल्ली, आगरा,मथुरा और वृंदावन घूमकर जाएंगे। हो सकता है कि और कभी नहीं आ पाए। “ रास्ते का जाम खुल गया था। हाथ छुड़ाते हुए बसंती देवी कहने लगी, “शरम नहीं आती है, अभी भी हाथ पकड़े हुए हो। सभी देख रहे हैं हमारी तरफ।” भवानन्द ने उत्तर दिया, “वे मुझे नहीं देख रहे है तुम्हारा हाथ पकड़े हुए। वे देख रहे है तुम्हारे जैसी सुंदरी मेरे साथ कैसे है। देख रही हो, तुम्हारी तरफ कितनी आंखें घूर रही हैं। “ बसंती देवी अपना पल्लू ठीक करते हुए कहने लगी, “मज़ाक करने के लिए यही समय मिला है। और समय नहीं मिला। मुझे क्या देखेंगे वे लोग;! देख रहे है, वे सब कैसे दौड़ रहे हैं। हो न हो वे